माँ

समृद्धि मनचंदा
समृद्धि मनचंदा दालान सुरेंद्र उपाध्याय प्रतिभा संधान की विजेता हैं। उनकी कविताएँ यहाँ पढ़ें ।
1) माँ
माँ के दुःख पुश्तैनी थे
जो उम्र के साथ
गठिया की तरह
उसकी हड्डियों में उतर गए
माँ के बारे में ये कल्पना कर पाना
कि कभी उसके दुःख निजी थे
कितना मुश्किल है !
मैंने उसकी हड्डियों को
किटकिटाते सुना है
कभी जाड़े से
कभी थकान से
सुबह शाम पानी से निथरी हड्डियाँ
घड़ी के काँटों की तरह
घर की हर हरकत में
टिकटिक बन घुलती रहीं
डॉक्टर कहता है
बुढ़ापे ने जल्दी पकड़ लिया माँ को
शायद माँ ने ही
उकताकर पकड़ लिया बुढ़ापा
माँ के बारे में
ये कल्पना कर पाना
कि कभी उसकी हड्डियाँ बजती नहीं थीं
कितना मुश्किल है
यह सोच पाना कि
ये खट चुकी औरत
कभी निश्चिन्त भाव से सुंदर थी !
2) क्षमा
मेरी भाषा
क्षमा करो मुझे !
कि मैं तुम्हें पूरा जोड़कर भी
नहीं रच पाया
एक वाक्य प्रेम
एक छंद शाँति
एक अनुच्छेद तुष्टि।
मेरी भाषा
क्षमा करो मुझे !
कि मैं चुप रहा
जब मुझे बोलना चाहिए था
किसी के हक का नारा
किसी के दर्द में प्रार्थना
किसी के उत्साह का गीत।
मेरी भाषा
क्षमा करो मुझे
कि मैं नहीं समझ पाया
तुम्हारे विस्तार में निहित
एक निर्झर मौन
एक निर्मल करुणा
एक निराकार सहानुभूति।
मेरी भाषा
हो सके तो क्षमा करो
मेरी अकर्मण्यता !
मैंने तुम्हें लज्जित किया है
ये जानते हुए भी कि तुम निष्पक्ष हो
जाने कितने ही अर्थों में खंडित करता रहा।
3) जॉर्ज फ़्लॉयड के नाम
“मैं साँस नहीं ले पा रहा !”
ये उसके अंतिम शब्द थे
पर उसने पहले कितनी ही बार
महसूस किया था कि
वह अपने हिस्से की पूरी हवा
नहीं पा सकता
उसकी धमनियों में उबलता लहू
उतना ही पुराना था
जितना वह इतिहास
जो उसे निरंतर बहिष्कृत
और बहिष्कृत करता आया है
वह शायद कुछ भी बड़ा नहीं चाहता था
पर वह नहीं जानता था कि
साधारण हो जाना
एक आपत्तिजनक माँग है!
“मैं साँस नहीं ले पा रहा !”
दरअसल उसके अंतिम शब्द नहीं थे
इन शब्दों ने जीवनभर उसका पीछा किया था।