आदमी होने से बेहतर होता है एक पेड़ होना


नरेन सहाय

1

आदमी होने से बेहतर होता है एक पेड़ होना

(1)

उस दिन

जामुन के नीचे प्रेम
रोपा था हमने

जैसे किसान रोपता है धान खेत
में

(2)

उस दिन

हमें साथ चलना था
आगे की यात्रा पर

जैसे पहला आदमी अपना
आविष्कार लिए निकला हो
अनंत यात्रा पर

(3)

उस दिन

तुम्हें खाली होना था

अपने अन्दर के शब्दों से

और मुझे उन सारे
शब्दों से उमग जाना
था बसंत की तरह

(4)

उस दिन

मैंने तुम्हें सुना और मैं
एक पेड़ हो गया

दूर सुनसान अकेले में खड़ा हुआ
एक पेड़

क्योंकि आदमी होने से
बेहतर होता है एक
हो जाना ?

( पेड़ होने से पहले
)

झरती देह ने

एक दूसरे को खूब चूमा

गुज़रती रेलगाड़ी के डिब्बों की
अनेक खिड़कियों से

जाने कितनी दफ़े
देखा गया होगा, हम
दोनों को

काँस के फूलों की
तरह

2

उसकी नाभि के अन्दर
से फूट रहा था
एक पेड़

मैंने तीन चित्रों का

एक वृत्त बनाया

पहला चित्र, उसकी गीली पीठ
का

दूसरा चित्र, उसकी आँखों के
भीतर तैरते हुए, पानी का

तीसरा चित्र उसकी नाभि के
अन्दर से फूटते हुए
पेड़ का

जैसे पीपल फूट जाता
है अपनी जड़ के
संपर्क में आने से

ऐसे ही आत्मा की
देह पर

प्रेम फूट गया था
अपने चुम्बकीय स्पर्श से

और आत्मा की गर्माहट ने

चूमना सिखा दिया, आदि
से अंत तक

दो अर्ध वृत्तों के मिलनसा

3

देह महसूस कर रही थी
आत्मा के नीले रंग
को

(1)

मैंने उसे जाने दिया,
चले जाने के लिए

पिछली बार की तरह
नहीं रोका, इस बार

जैसे हर बार रोक
लेता था रुक जाने
के लिए

रुकना जैसे नियति रही
होगी, हम दोनों के लिए

लेकिन इस बार उसे
जाने दिया, उसने मुझे और
मैंने उसे

उसके जाने के बाद

मैं एक नीम का
पेड़ हो गया

फिर कीकर और बाद में पीपल

और इस तरह झरझर झरता रहा,
कई मौसम

अपने ही कमरे में

झरते हुए, मैंने खुद
को सूखे पेड़ जैसा
पाया

जो क्षितिज के पार अपने
ही भीतर खड़ा था
एक पेड़ की मानिंद

(2)

खिड़की के बाहर

बारिश, हवा, बर्फ़ और
ओलों के बीच

देह महसूस कर रही थी
आत्मा के नीले रंग
को

उसके जाने के बाद

4

आठ टूट के अलग
हो जाता है दो
शून्यों में

एक तीन इधर था

एक तीन उधर था

दोनों

पास आए

आने के लिए

प्रेम में

और मिलके आठ हो गए

अब तीन में से
एक निकाला जा चूका था

और दो अब आठ
हो चुके थे

टूट के अलग हुए
होंगे, दो स्वतंत्र शून्य

जो आठ थे

जो अनंत थे

कभी

5

हरेक पत्ता मुझ में साँस
लेता है

मैं पीपल हूँ

अनगिनत हृदयों वाला

हरेक पत्ता

मुझ में साँस लेता
है

नरेन सहाय का बचपन टीकमगढ़, मध्यप्रदेश के खेतों, बगीचों और जंगलों में गुज़रा है। एम.सी.आर.सी., जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से मास कम्युनिकेशन में स्नातकोत्तर करने के बाद स्वतंत्र रूप से मास मीडिया क्षेत्र में कार्य शुरु किया। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की योजनाओं में फ़ोटोग्राफ़ी, वीडियो आर्ट, सिनेमा और प्रोडक्शन से जुड़े रहे हैं।

बतौर विज़ुअल मीडियम के अतिथि शिक्षक, जामिया मिलिया इस्लामिया में कार्यरत रहे हैं।वीरे दी वेडिंगकी फ़िल्म मेकिंग एवं टाइम लैप्स के सिनेमैटोग्राफ़र रहे हैं। आप वर्तमान में शिमला में रहते हुए अपने उपन्यास को अंतिम रूप दे रहे हैं।

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